मां – एक दास्तां (Maa - ek dastaan )


मां – एक दास्तां


एक रात हम सोए थे, और ख्वाबों में खोए थे,
वो ख्वाब था उसका, जिसके आंचल में हम रोए थे,
जब रूठ कर हम बैठ जाते, वो राजा बेटा कहकर बुलाती थी।
सुलाने को रात में, ढेरो कहानियां सुनाती थी।
खुद कितना भी दुखी क्यों ना हो, हमे खूब हसाती थी,
कुछ गलत किया तो, डांट भी खूब लगाती थी।
उंगली पकड़कर अच्छाई की राह पर चलना सिखाती थी।
वो मां ही थी, जो हमे सबसे सफल होते देखना चाहती थी।1।।


फिर चौक अचानक जाग उठे, जब इन ख्वाबों में खोए थे।
जाग हुआ आश्चर्य, हम सपनों में खोए थे।
पर ये स्वप्न ही हमे हकीकत बतलाते है,
थोड़े बड़े क्या हुए, हम मां को ही भूल जाते है।
अब ये ख्वाब हमे हर रोज सताते हैं।
कैसे लोग मां को ही बोझ समझने लग जाते है।
जिसने दुःख सहकर पाला है, उसको ही दुख पहुंचाते है।
क्यों भाई भाई के बटवारे में, मां का हिसाबाट लगाते है।2।।


यह सब सहकर भी, वो चुपचाप खड़ी रह जाती है,
दो बेटों के बटवारों में, दो शब्द बोल ना पाती है।

जो चार पालती बचपन में, उसे एक पालने वाला ना।
भर पेट खिलाती भोजन जो, उसे एक खिलाने वाला ना।3।।


वो रो–रो कर पोछती है आसूं दुपट्टे से अपने,
बेटे होंगे बुढ़ापे का सहारा, देखती थी सपने।
सपने उसके टूट गए, जब पराए हो गए सब अपने,
किसे सुनाए व्यथा वो अपनी, कोई नही इस जग में।4।।


अरे मूर्खो, मत ठुकराओ, मां का करो सम्मान,
इस दुनियां का अनमोल रत्न, मां ही है सबसे महान।
मैं अपने इस छोटे मुख से, कैसे करूं तेरा गुडगान,
मां तेरी ममता के आगे, फीका लगे हर पकवान।।
मां तेरी ममता के आगे, फीका लगे हर पकवान।5।।


— अलोक कुशवाहा
Alok kushwaha

मै कोई कवि तो नहीं, जो दिल में आता है कागज पर उतार देता हूं।। Poem by heart �� .

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