Ek majdoor - Ghar lautne tak ka safar

 एक मजदूर "महामारी और घर लौटने तक का सफर "


रक्त की बूंद से अपने निसां छोड़ता,
वो चलता चला जा रहा था अपनी राह दौड़ता।
कुछ कदम, कुछ दूरी नहीं वो मीलों का सफर था,
पैरों पर बड़े बड़े छाले, सर पर जुनून, बड़ा जिगर था।
खाने को दाना नहीं, और सामने पहाड़ जैसा डगर था।।


पहले महामारी का डर, फिर लॉकडाउन कि मार,
अब करे भी क्या, गरीबी से जूझ रहा था परिवार।
बचाया जो कमाई से, सब लॉकडॉउन में गवां दिया।
हालातो से ऐसा मजबूर हुआ जीवन दाओं पर लगा दिया।


घर वापसी को बड़ा मजबूर था,
अपने घर से जो मीलों दूर था।
कब तक लगाता गुहार,
उसके लिए तो शाशन भी बड़ा क्रूर था।
कोई सुनता भी नहीं शायद इसलिए कि वो मजदूर था।


फिर पैदल ही निकल पड़े सब घर को,
जब जीने को दुस्वार हुये।
कुछ तो पहुंच गए घर को, कुछ ने मौत के दीदार किए।
कई ट्रेन से कट गए, कई सड़क हादसों के शिकार हुए।


सवाल उठे जब साशन पर, चलाई गई फिर श्रमिक ट्रेन।
कुछ को सुविधा मुफ्त मिली, कुछ से फिर हुआ लेन देन।
जिसपे थोड़ा पैसा था देकर वो घर को चला गया।
लेकिन जो असहाय था, वो स्टेशनों पर पड़ा रहा।
फिर धीरे धीरे दिन गुजरे, औेर उनके भी दिन सुधरे।
एक एक करके फिर वो श्रमिक भी अपने घर पहुंचे।


संतोष जनक है उनके लिए, जिन्हें मुसीबत कम पड़ी।
पर बड़ा आक्रोश है उनमें जिन्हें कोई सुविधा ही ना मिली।
जो पहुंचे है घर पर अब वापस जाने को तैयार नहीं।
जिनके बिगड़े हालात, उनके हालातो में सुधार कोई नहीं।
दाने दाने को मोहताज है पर, कोई सरकारी उपचार नहीं।
कैसे पूरी करे जरुरते, जब दो पैसे भी उनके पास नहीं।


कहने को तो सरकारें भी कई राहत पैकेज लाई है।
पर पूछो किसानों मजदूरों से, कितनो ने सुविधा पाई है।
इससे ज्यादा क्या बयां करू उन मजदूरों की लाचारी।
और कैसे बताऊं, कितनी क्रूर है ये महामारी।
और कैसे बताऊं, कितनी क्रूर है ये महामारी।।

                        -- आलोक कुशवाहा --

Alok kushwaha

मै कोई कवि तो नहीं, जो दिल में आता है कागज पर उतार देता हूं।। Poem by heart �� .

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